Aag Shayari
इश्क़ का मो'जिज़ा बताऊँ मैं आग बारिश की तरह लगती है
वो आग, हवा, संत की बानी की तरह है काटोगे उसे कैसे जो पानी की तरह है
हमारी नफरतों की आग में सब कुछ न जल जाये, की इस बस्ती में हम दोनों को आइंदा भी रहना है!
ये कौन आग लगाने पे है यहां मामूर ये कौन शहर को मक़्तल बनाने वाला है!
कुछ लोग है जो हमको आग समझते है, और हम है कि जुगनुओं को भी चराग समझते हैं।
आग कहीं भी लग सकती है इस बरसात के मौसम में, बादल की आँखों से टपका हर आंसू अंगारा है!
आग का क्या है पल दो पल में लगती है बुझते बुझते एक ज़माना लगता है!
पेड़ का दुख तो कोई पूछने वाला ही न था अपनी ही आग में जलता हुआ साया देखा!
दिल के फफोले जल उठे सीने के दाग से, इस घर को आग लग गई घर के चिराग से।
मैं ज़िन्दगी की आग में जलने से बच गया, हाथो में आ गया तेरे दामन किसी तरह।
वो जो आग बने फिरते थे, उन्हें भी ख़ाक होते देखा है मैंने।
समझ के आग लगाना हमारे घर में तुम, हमारे घर के बराबर तुम्हारा भी घर है ।
आज खुद को आग लगा दी है, देखूँ तो जरा कौन पानी कौन घी है।
आग लगाई तुम ने ही तो, लोगों ने तो सिर्फ़ हवा दी!
झुलसा बदन है देख के नफरत न कीजिये, मैं दूसरों की आग बुझाने में जल गया।
इश्क़ को कोई छुपा सकता नहीं आग लगती है उठता है धुंआ।
ये इश्क़ नहीं आसान बस इतना समझ लीजिये, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है!
चूमकर तुम्हारे लबों को पता चला, आग और पानी का साथ कैसा होता हैं।
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