न जाने बाहर भी कितने आसेब मुंतज़िर हों अभी मैं अंदर के आदमी से डरा हुआ हूँ - Aadmi Shayari

न जाने बाहर भी कितने आसेब मुंतज़िर हों अभी मैं अंदर के आदमी से डरा हुआ हूँ

Aadmi Shayari