अगर तुम ✒ अजनबी हो तो लगते क्यों नहीं और अगर मेरे हो तो मिलते क्यों नहीं!
इस अजनबी शहर में पत्थर कहां से आया है, लोगों की भीड़ में कोई अपना ज़रूर है!
हमसफ़र की तरह वो चला था मगर, रास्ते भर रहा अजनबी अजनबी.
वजह तक पूछने का मौका ही ना मिला, बस लम्हे गुजरते गए और हम अजनबी होते गए!
हम कुछ ना कह सके उनसे, इतने जज्बातों के बाद, हम अजनबी के अजनबी ही रहे, इतनी मुलाकातो के बाद!
कल तक सिर्फ़ एक अजनबी थे तुम आज दिल की एक एक धड़कन की बंदगी हो तुम!
चले आओ ‘अजनबी’ बनकर फिर से मिले तुम मेरा नाम पूछो मैं तुम्हारा हाल पूछूं!
उस अजनबी से हाथ मिलाने के वास्ते महफ़िल में सब से हाथ मिलाना पड़ा मुझे!
दिल चाहता है कि फ़िर, अजनबी बन कर देखें, तुम तमन्ना बन जाओ, हम उम्मीद बन कर देखें।
तेरा नाम था आज किसी अजनबी की ज़ुबान पे, बात तो ज़रा सी थी पर दिल ने बुरा मान लिया!
अजनबी बन के हँसा करती है, ज़िंदगी किस से वफ़ा करती है, क्या जलाऊँ मैं मोहब्बत के चराग़, एक आँधी सी चला करती है।
एक अजनबी से मुझे इतना प्यार क्यों है, इंकार करने पर चाहत का इकरार क्यों है; उससे मिलना तो तकदीर मे लिखा भी नही, फिर हर मोड़ पे उसी का इंतज़ार क्यों है!
सदियों बाद उस अजनबी से मुलाक़ात हुई, आँखों ही आँखों में चाहत की हर बात हुई!
साथ बिताए वो पल फिर से भूल जाते है चल फिर से अजनबी होने का खेल दिखाते है!
इससे पहले कहीं रूठ न जाएँ मौसम अपने, धड़कते हुए अरमानों एक सुरमई शाम दे दें!
ऐसा नहीं है की मैं अब उन्हें और नहीं चाहता, अब उनका हमे यूँ अनदेखा करना हम से और देखा नहीं जाता।
चिराग जलाने का सलीका सीखो साहब हवाओं पे इल्ज़ाम लगाने से क्या होगा.
दिल मे कुछ अरमान थे मगर बेदर्द इंसान थे अपना गुजारा कैसे होता कांच का दिल था पत्थर के मकान थे!