आयुर्वेद, कला और विज्ञान का मेल है।
साधु वस्त्र से नहीं चरित्र से बनता है।
नकारात्मक विचार मानसिक बीमारी का कारण हैं।
उर्जा उत्पन्न करके ही एलर्जी को रोका जा सकता है।
विचारों में शुद्धीकरण ही मात्र एक नैतिकता है।
प्रत्येक जीव की आत्मा में मेरा परमात्मा विराजमान है।
सुख बाहर से नहीं भीतर से आता है।
मनुष्य का जन्म हमारे लिए भगवान का सबसे बडा उपहार है।
कर्म ही मेरा धर्म है। कर्म ही मेरि पूजा है।
सदा चेहरे पर प्रसन्नता व मुस्कान रखो। दूसरों को प्रसन्नता दो, तुम्हें प्रसन्नता मिलेगी।
हमारे सुख-दुःख का कारण दूसरे व्यक्ति या परिस्थितियाँ नहीं अपितु हमारे अच्छे या बूरे विचार होते हैं।
मनुष्य आध्यात्मिक ज्ञान और परम सुख प्राप्त करता है, जब वह प्रकृति के साथ संतुलन बनाए रखता है।
एक आदमी परम सुख प्राप्त कर सकता है, अगर वह काम करते समय अपने दिमाग को शांत, संतुलित और एकाग्र रखता है।
कपालभाती प्राणायाम करे और 99% रोगों से मुक्ति पाए.
असंभव को संभव बनाने के लिये एक आदमी के पास असीमित क्षमता है।
किसी व्यक्ति की नही व्यक्तित्व की पूजा करो। चित्र की नही चरित्र की पूजा करो। कर्म को अपना धर्म मानो। राष्ट्रधर्म को सबसे ऊपर रखो।
मैं माँ भारती का अमृतपुत्र हूँ, “माता भूमि: पुत्रोहं प्रथिव्या:”।
भगवान सदा हमें हमारी क्षमता, पात्रता व श्रम से अधिक ही प्रदान करते हैं।
पवित्र विचार प्रवाह ही व्यक्ति के पवित्र आहार, पवित्र व्यवहार, पवित्र आचरण व पवित्र जीवन का आधार है।
आहार, विचार, वाणी, व्यवहार, स्वभाव में, आचरण में पूर्ण अनुशासन है यही है योग।
बीमारियों के कुचक्र को योग रूपी सुदर्शन चक्र से ही समाप्त कीजिये।
धन तो मिलता है, परंतु स्वास्थ्य अमूल्य होता है।
योग से हम अपने अंदर के दिव्य तत्वों को पहचान सकते हैं।
स्वास्थ्य, मानसिक शांति और आध्यात्मिकता - ये तीनों जीवन के स्तंभ हैं।
आयुर्वेद और योग से जीवन का हर दिन एक नया उत्सव बन जाता है।
जीवन में हर दिन योग और साधना के लिए समय निकालें, यही सच्चा संतुलन है।
प्रकृति के साथ जीना ही सच्चा योग है।
योग से जीवन में संतुलन और शांति प्राप्त करें।
योग से जीवन में सकारात्मक बदलाव आते हैं।
साधारण जीवन, उच्च विचार - यही जीवन का सच्चा मंत्र है।
जीवन में सकारात्मक सोच ही सफलता की कुंजी है।
आयुर्वेद में जीवन का हर पहलू समाहित है - शरीर, मन और आत्मा।
स्वास्थ्य और सादगी से ही जीवन में सुख और संतोष प्राप्त होता है।
प्रेम, वासना नहीं उपासना है। वासना का उत्कर्ष प्रेम की हत्या है, प्रेम समर्पण एवं विश्वास की परकाष्ठा है।
विचारों की अपवित्रता ही हिंसा, अपराध, क्रूरता, शोषण, अन्याय, अधर्म और भ्रष्टाचार का कारण है।
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